भारत-अमेरिका का रक्षा सम्बन्ध बढ़ने की बातें लगभग दशक भर से ज्यादा समय से चल रही हैं, किन्तु धीरे-धीरे बढ़ते हुए अब यह गति पकड़ने लगी है. हाल ही में जिस प्रकार मोदी सरकार ने उन मुद्दों पर भी कदम बढ़ाया है, जिन पर सात-आठ साल से भारत की सरकारें ख़िलाफ़ रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे भारत अमरीका का छोटा सहयोगी बन जाएगा. खैर, अब यह छोटे बड़े भाई के चक्कर से आगे निकलकर भारत ने आगे बढ़ने का निश्चय कर लिया है. अब अगर अमरीका एशियाई क्षेत्र में किसी देश पर हमला करता है तो भारत को उसका सहयोग करना पड़ेगा. चूंकि चीन ( India USA Relations, Hindi Article, Defense Deals, LEMOA, China Angle) की बढ़ती ताक़त देखते हुए अमरीका ऐसे कदम बढ़ा रहा है और वह काफी समय से इस कोशिश में लगा हुआ था. जानकारी के अनुसार दोनों देशों में लॉजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट के अलावा कम्यूनिकेशन इक्विपमेंट और डेक्का एग्रीमेंट, डिजिटल नक़्शे को लेकर भी समझौता हुआ है. इस बात पर आगे चर्चा करेंगे कि आखिर अमरीका इस बात पर क्यों डटा हुआ है कि 'समग्र समझौतों' (लेमोआ, सिस्मोआ, बेका) के बगैर दोनों देशों का रक्षा सहयोग आगे नहीं बढ़ सकता. भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार के 'परिवर्तनशील' रहने की जो व्याख्या दी है, उसका साक्षात दर्शन भारत-अमेरिका के हालिया संबंधों में होता जा रहा है. यूं तो शीत-युद्ध और सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही भारत-अमेरिका लगातार करीब आते गए हैं, किन्तु जिस तेजी से 'मोदी-ओबामा' युग में यह देश करीब आये हैं, वह इतिहास में निश्चित रूप से विशेष शब्दावली में दर्ज रहने वाला है! एक तरह से आप इन संबंधों को बदलते वैश्विक समीकरणों की जरूरत भी कह सकते हैं, किन्तु इस बीच संतुलन के सिद्धांत की जरूरत कहीं ज्यादा दिखती है, खासकर भारत को!
पिछले कुछ समय से ये मुद्दा लगातार चर्चा में था कि भारत और अमेरिका के बीच एक ऐसी डील होने वाली है, जिसके अन्तर्गत दोनों देश एक दूसरे के सैन्य अड्डों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिस पर काफी होहल्ला मचा! लोगबाग कहने लगे कि भारत कौन सा अमेरिकी महाद्वीप में अपनी सैन्य-सक्रियता बढ़ाने वाला है, तो ऐसे में जाहिर तौर पर यह पूरे का पूरा मामला भारत की ज़मीन को सैन्य उद्देश्यों के लिए अमेरिका द्वारा इस्तेमाल ( India USA Relations, Hindi Article, Defense Deals, LEMOA, Positives and Negatives of the Deal) करने का था. हालाँकि, बाद में इस पर सफाई आयी कि मामला सिर्फ 'साज-ओ-सामान' के आदान प्रदान का है (भविष्य में यह आगे भी बढ़ेगा ही, शायद काफी आगे तक). भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और अमरीका में उनके समकक्ष एश्टन कार्टर ने सैद्धांतिक तौर पर इस समझौते को अंजाम दे दिया है और इसके बाद अब भारत और अमरीका जल्द ही 'लॉजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट' [Logistics Exchange Memorandum of Agreement (LEMOA)] पर हस्ताक्षर करेंगे. हालाँकि इसके लिए भारत में अभी कुछ हिचक बाकी है, किन्तु यह समझौता लगभग हो गया माना जाना चाहिए, शायद सितंबर के अंत तक! हालाँकि, मामला सिर्फ 'लेमोआ' तक ही नहीं रूकने वाला, बल्कि इसके आगे 'सिस्मोआ' और 'बेका' [CISMOA (Communication Interoperability and Security Memorandum Agreement) और BECA (Basic Exchange and Cooperation Agreement)] तक बात पहुंचेगी ही! काश कि 'विदेश-नीति' इतनी सीधी होती कि हम उसे 'गलत' या 'सही' दो शब्दों में व्याख्यायित कर पाते, किन्तु इसमें हज़ार किन्तु-परंतु घुसे होते हैं और वह कदम-दर-कदम ही स्पष्ट होते हैं!
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थोड़ा तकनीकी बातों से अलग हटकर समझौते की पारस्परिक उपयोगिता पर सोचें तो बेशक यह प्रचारित किया जा रहा हो कि इससे दोनों देशों को फायदा होगा, किन्तु मामला अमेरिका के पक्ष में ज्यादा ही नहीं, बहुत ज्यादा झुका नज़र आ रहा है अभी. इसके साथ यह बात भी सत्य है कि अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने के अतिरिक्त भारत के पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है, इसलिए कुल मामला 'संतुलन' पर आकर टिक जाता है. चूंकि, अमेरिका का कार्य क्षेत्र समूचा विश्व हो चुका है, इसलिए ऐसे समझौते का उसे ही सर्वाधिक लाभ होगा, पर मूल बात यह है कि ऐसे में अपने हितों को हम कितना बचा पाते हैं तो इसके बदले अमेरिका से हम क्या हासिल कर सकते हैं. वर्तमान समझौता दोनों देशों की सेना ( India USA Relations, Hindi Article, Defense Deals, LEMOA, Strength of Army) के बीच साजो-सामान संबंधी सहयोग, आपूर्ति एवं सेवा की व्यवस्था प्रदान करेगा, तो समझौता हो जाने के बाद मिलिट्री सप्लाई, रिपेयर, जंगी जहाजों और ईंधन भरने के लिए प्लेटफॉर्म को उपयोग में लाने की बात भी होगी. अभी बेशक कोई कहे कि इस समझौते का मतलब सैन्य ठिकानों का इस्तेमाल नहीं है, किन्तु आने वाले दिनों में निश्चित रूप से यह हो जायेगा, इससे बचा नहीं जा सकता! चूंकि सरकारें 'पब्लिक सेंटीमेंट्स' के हिसाब से थोड़ा टालमटोल जरूर करती हैं, किन्तु नीतिगत फैसलों की अपनी मजबूरियाँ होती हैं. ऐसे में अपनी 'गुट निरपेक्षता' की नीति छोड़ने की भारत क्या 'कीमत' ले रहा है, यह बड़ा सवाल है. एक बड़ा मनोवैज्ञानिक फायदा जो भारत के पक्ष में है, वह 'चीन' के खिलाफ दबाव बढ़ाने का है तो दूसरा व्यवहारिक फायदा भारत को दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक देश से 'हथियार निर्माता' देश के रूप में बदलना है.
हालाँकि, अभी बात स्पष्ट रूप से खुली नहीं है कि क्या कैसे लेन देन होगा, किन्तु इस समझौते के अनुसार 'मेक इन इंडिया' प्रोग्राम के तहत 'यूएस' हमारे देश को हथियारों के निर्माण के लिए जरूरी जटिल तकनीक मुहैया कराएगा. कई लोग यह प्रश्न उठा सकते हैं कि 'हथियार निर्माण तकनीक' से 'वर्तमान समझौते' का क्या तात्पर्य है तो यहाँ समझना होगा कि अंततः यूनाइटेड स्टेट्स के लिया अपना प्रभाव बढ़ाना ही मुख्य है और वह इस बात के प्रति निश्चिन्त होना चाहता है कि जिस भी देश को वह सैन्य रूप से मजबूत करेगा, उसका वह अपने हितों के अनुसार इस्तेमाल भी करेगा. मतलब साफ है, बदली हुई परिस्थितियों में भारत गुट-निरपेक्ष नहीं रह सकता है. चूंकि अमेरिका का एशिया क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर दक्षिणी चीन सागर विवाद समेत ईरान इत्यादि देशों से विवाद ( India USA Relations, Hindi Article, Defense Deals, LEMOA, Afghanistan, South China Sea, Iran) में यह समझौता उसके लिए सीधा लाभदायक है, तो भारत को यहाँ चौकन्ना रहना होगा कि किसी भी हाल में उन देशों से अमेरिका का टकराव न हो, जिनसे भारत के सम्बन्ध सहज हैं. हालाँकि, ऐसा होना नामुमकिन ही है क्योंकि अमेरिका के हित और भारत के हित सामरिक रूप से अभी बहुत अलग हैं. मसलन ईरान को ही ले लीजिये, अगर अमेरिका से उसका टकराव होता है तो भारत के लिए स्थिति बेहद मुश्किल हो जाएगी. बेशक 'लेमोआ' समझौते में ऐसे हालात से निपटने में भारत की राय मानने की बात कही गयी है, मतलब भारत ऐसी कंडीशन में इस समझौते की शर्तों से बाध्य नहीं होगा और अपने हितों के अनुरूप स्वतंत्र निर्णय ले सकेगा, पर समझा जा सकता है कि आप दोस्ती में 'ना' नहीं कह सकते और अगर कहते भी हैं तो उसका असर दोस्ती पर पड़ना तय है.
इस बीच यह बात केंद्र सरकार मान चुकी है कि अमेरिका के करीब जाने के अलावा भारत के पास दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है और वह इस रास्ते पर बढ़ भी चुकी है. आने वाले सालों में 'लेमोआ' के बाद 'सिस्मोआ' और 'बेका' जैसे समझौते भारत को पूरी तरह अमेरिका के पक्ष में खड़ा कर सकते हैं. बावजूद इन समझौतों के यह मान लेना अति बेवकूफी होगी कि चीन-भारत या भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में अमेरिका सामने से हमारा साथ देगा! नहीं, हमें युद्ध अपने बल पर लड़ना होगा और अमेरिका से इन समझौतों का मतलब इतना ही है कि सैन्य तकनीक लेकर, इन्वेस्टमेंट लेकर, एनएसजी समेत यूएनओ सिक्योरिटी कौंसिल ( India USA Relations, Hindi Article, Defense Deals, LEMOA, NSG, UNO) में शामिल होकर हम खुद इतने मजबूत हो सकें कि अमेरिका के वगैर चीन जैसों को मुंहतोड़ जवाब दे सकें! अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बिसात पर भारत अब 'मोहरे' के रूप में है और वह कब और कैसे अपनी स्थिति 'वजीर' की करता है, देखने वाली बात यही होगी. वैसे सच्चाई यही है कि आप परिस्थिति से भाग नहीं सकते, तो क्यों न उससे मुकाबला करने की रणनीति अपनाई जाय. हाँ, इन सब स्थितियों के लिए सरकार को आम राय बनाने की कोशिश जरूर करनी चाहिए, ताकि लोगबाग हकीकत से सजग रहें और चुनौतियों से मुकाबिल होने की तैयारी कर सकें! इस मोर्चे पर सरकार को अवश्य ही कार्य करना होगा और यह लोकतंत्र के अनुरूप भी होगा, इस बात में दो राय नहीं!
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