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    Sunday 12 February 2017

    ...दबे पांव रफ्तार पकड़ रहा हाथी ? - Mayawati in UP election 2017



    -- सूबे में सरकार बनाने को लेकर ‘काॅन्फिडेंट‘ हैं बसपा सुप्रीमो -- सपा और भाजपा, दोनों ही दलों पर तीखे अंदाज में निशाना -- ट्रंप कार्ड साबित हो सकता है दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़  

    पवन शर्मा 
    सहारनपुर। यूपी में देश की सबसे ‘हाईवोल्टेज‘ चुनावी मुहिम के शुरुआती दौर में ही बसपा का ‘हाथी‘ दबे पांव रफ्तार पकड़ता नजर आ रहा है। इसे खास तौर पर सूबे के सियासी समीकरणों को ध्यान रखकर पार्टी की ओर से तैयार की गई ‘बीडीएम़‘ यानी ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम गठजोड की बेहद सधी रणनीति का सीधा ‘इम्पैक्ट‘ माना जा रहा है। वहीं शाही इमाम की बसपा की हिमायत में मुसलमानों से की गई अपील और अब समूचे वेस्ट यूपी में धुआंधार रैलियों के चलते भी पार्टी प्रमुख मायावती की ‘बाॅडी लेंग्वेज‘ में अलग ही ‘काॅन्फिडेंस‘ झलकने लगा है। नतीजतन, सियासत की नब्ज पर रखने वाले मान रहे हैं कि, बहुत सोच-समझकर चली गई ‘हाथी‘ की यह चाल वाकई तगड़ा ‘ट्रंप कार्ड‘ साबित हो सकती है। 

    शनिवार को वेस्ट यूपी के सीमांत जिले सहारनपुर में चुनावी रैली को संबोधित करने पहुंची बसपा प्रमुख मायावती अपनी पार्टी की मौजूदा ‘पोजीशन‘ को लेकर बुलंद आत्मविश्वास से लबरेज नजर आईं। वहीं, इस दौरान उमड़ी भीड़ के बीच वे लगातार इधर से उधर नजरें घुमाते समय बेहद बारीकी के साथ देखती-परखती रहीं कि, क्या उनका ‘बीडीएम‘ फैक्टर न केवल रैलियों में भीड़ जुटाने बल्कि, वोट बैंक बढ़ाने में भी वाकई कारगर साबित हो रहा है ? अपने करीब 45 मिनट लंबे संबोधन में इसी सोच का सुबूत नुमायां करते हुए उन्होंने बार-बार वे तमाम लुभावनी घोषणाएं कीं, जिनकी बदौलत हर तबके को साथ लेकर यूपी के चुनावी घमासान में करीब दस साल बाद सत्ता तक पहुंचने की राह तय की जा सके। इनमें खास तौर पर सहारनपुर के विश्वप्रसिद्ध वुडकार्विंग उद्योग को अपनी सरकार बनते ही नए सिरे से उठाने और पापुलर के दाम बढ़ाने से लेकर गन्ना किसानों को बकाया भुगतान दिलाने तक की घोषणाएं शामिल रहीं। 

    रैली में मायावती ने सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों को साधते हुए जैसे ही उन्हें बाॅर्डर स्कीम खत्म करके होम पोस्टिंग दिलाने और सरकारी कर्मचारियों के रूप में कार्यरत दंपतियों में दोनों को एक ही जिले में तैनात करने का वादा किया तो, उनके रुख में बड़े और एक किस्म से ‘पाॅजिटिव‘ बदलाव की झलक शीशे की मानिंद साफ नजर आई। काबिल-ए-गौर है कि, 2007 में अपनी पिछली सरकार में मायावती ने एक तरफ जहां सपा के कार्यकाल में हुई पुलिसकर्मियों की भर्ती को रद्द करते हुए 22,000 नए पुलिसकर्मियों को नौकरी से बाहर कर दिया था तो वहीं, बतौर मुख्यमंत्री वे अपने दौरों में पूरे सरकारी अमले को ‘खौफजदा‘ करने में भी कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती थीं। जबकि, अब वही मायावती इस चुनाव में नए अंदाज में नजर आ रही हैं। अब वह न केवल ज्यादा खुलकर संवाद कर रही हैं बल्कि, अपने परंपरागत सियासी प्रतिद्वंद्वियों यानी, भाजपा और सपा को चुनाव के शुरुआती दौर में ही तगड़ी ‘पटखनी‘ देने की खातिर अपने रुख को हरमुमकिन ‘लचीला‘ बनाने से भी कतई गुरेज नहीं कर रही हैं।

    दरअसल, पहले दो विधानसभा चुनाव और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में तमाम कोशिशों के बावजूद मिली नाकामयाबी के बाद अब इस चुनाव को बसपा प्रमुख मायावती न केवल अपने लिए बेहद अहम मान रही हंै बल्कि, इसी बहाने वे एक बार फिर अपनी करिश्माई ‘शख्सियत‘ का जादू आम लोगों के बीच चलता देखने को भी खासी बेकरार हैं। यही कारण है कि, यूपी की इस सबसे बड़ी सियासी जंग को शुरुआती ‘राउंड‘ में ही जीतने के लिए वे पूरा जोर तो लगा ही रही हैं वहीं हर पड़ाव पर लोगों की नब्ज भांपते हुए वे अपने भाषण से लेकर रुख तक में जरूरी बदलाव भी कर रही हैं। शायद यही कारण है कि, एक किस्म से बिलकुल नई ‘राह‘ पर चलने का भरोसा दिलाते हुए उन्होंने रैली के दौरान साफ-साफ कह दिया कि, अब न सूबे में नए स्मारक या मूर्तियां स्थापित होंगी और न ही बेवजह शिलान्यास और घोषणाएं की जाएंगी। बल्कि, इसके बजाए अब उनका फोकस ‘सर्वसमाज‘ के विकास पर रहेगा। काबिल-ए-गौर पहलू यह भी है कि, बाकी दलों के मुकाबले बहुत पहले से चुनावी तैयारी में जुटीं मायावती अब अपने ‘बीएमडी‘ फैक्टर यानी, ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम गठजोड को सिरे चढ़ाने की खातिर पूरी तरह कमर कस चुकी हैं, जिसकी झलक सहारनपुर से लेकर पूरे वेस्ट यूपी में उनकी ओर से चुनाव मैदान में उतारे गए प्रत्याशियों की लिस्ट में झलकती ‘सोशल इंजीनियरिंग‘ से बखूबी लगाया जा सकता है। मसलन, सहारनपुर में ही इस बार कुल सात सीटों में केवल दो पर ऐसे दलित चेहरे चुनाव मैदान में हैं, जो ‘सिटिंग विधायक‘ थे जबकि, दो मुस्लिम प्रत्याशियों सहित अन्य टिकट गैर दलित वर्ग को दिए गए। अपनी रैली के दौरान, इन सभी प्रत्याशियों को मंच पर साथ रखने के साथ ही जनता से सीधा संवाद साधते हुए बसपा प्रमुख ने एक तरफ जहां आम लोगों में यह संदेश पहुंचाने की कोशिश की कि उनकी पार्टी सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहती है तो दूसरी तरफ, उन्होंने अपनी चुनावी रणनीति में बड़े और सकारात्मक बदलाव की झलक भी बखूबी नुमायां कर दी। 

    मायावती यह भी जानती-समझती हैं कि, अपने परंपरागत दलित वोटों का तो बड़ा समर्थन उनके पास है ही वहीं, सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ वे भाजपा और पीएम मोदी को सीधे निशाने पर रखकर मुस्लिमों को अपने और करीब लाने में भी कामयाब हो सकती हैं। इसीलिए, रैली के दौरान उन्होंने स्पष्ट रूप से मुसलमानों को सचेत किया कि वे दो धड़ों में बंटी सपा के साथ जाकर अपना वोट कतई बर्बाद न करें तो खुद को दलितों से लेकर सवर्णों तक की हितैषी दर्शाने की जद्दोजहद में भी वे लगातार जुटी रहीं। स्वाभाविक रूप से उनकी ‘बाॅडी लेंग्वेज‘ भी देखते ही देखते बेहद लचीली हो चली है। इससे, कम से कम फिलवक्त यह तो साफ हो ही गया है कि, एक दौर में बेहद सख्तमिजाज ‘हुक्मरान‘ से अब तेजी से बदल रहे माहौल की ‘नब्ज‘ भांपकर खुद को एक नई-नवेली विकासोन्मुखी छवि में ढालने के लिए उन्होंने वाकई तगड़ा ‘होमवर्क‘ किया है। नतीजतन, कयास लगाने का सिलसिला एक बार फिर जोर पकड़ रहा है कि, क्या यही ‘तेवर‘ मायावती और उनकी पार्टी को अर्से बाद नई गति से सत्ता के ‘सिंहासन‘ तक पहुंचाएंगे या फिर ‘पछुवा‘ हवाओं का रुख उनकी पार्टी के बजाय किसी ओर ही दिशा में है ?

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