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    Sunday, 29 January 2017

    तुरुप का पत्ता साबित होगा ‘ब्राह्मण कार्ड‘ ? - Election 2017

    * किसी भी दल की किस्मत बदल सकता है यह वोट बैंक
    * यूपी चुनाव में इस समाज की बेहद दमदार भूमिका
    * इस बार काफी हद तक एकजुट है ब्राह्मण बिरादरी
    * सम्मान व पहचान सबसे बड़ी चाहत है इस वर्ग की
    * सहारनपुर में भी ब्राह्मण वोटरों पर टिकी हैं निगाहें 

    पवन शर्मा 
    सहारनपुर। यूपी के चुनावी घमासान में हर दल परंपरागत रूप से जातिगत समीकरणों की डोर थामे हुए है। इस नजरिए से परखें तो ब्राह्मण समाज पर एक बार फिर तमाम निगाहें टिकी हैं। सूबे के तकरीबन तमाम हिस्सों में यह बिरादरी अमूमन हर चुनाव में अहम भूमिका निभाती रही है। लेकिन, खुद समाज की दशा और दिशा पर अक्सर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। शायद यही कारण है कि, इस बार पहले की तुलना में ब्राह्मण समाज कहीं अधिक चिंतनशील और कुछ हद तक एकजुट भी नजर आ रहा है। नतीजतन, सभी सियासी खेमे इस बेहद अहम वोट बैंक को अपने पाले में खींचने की खातिर तमाम हथकंडे अपना रहे हैं।
    यूपी में ब्राह्मण मतदाताओं को भले ही संख्या बल के लिहाज से बहुत अधिक न आंका जाए लेकिन, इस बिरादरी की गिनती हमेशा प्रबुद्ध वर्गों में होती रही है। राजनीतिक परिदृश्य में भी ब्राह्मण नेताओं का बोलबाला है लेकिन, तमाम दावों के बावजूद आज तक ब्राह्मण समाज अपने उत्थान की बाट जोह रहा है। आलम यह है कि, एक दौर में कांग्र्रेस के परंपरागत वोट बैंक की पहचान रखने वाले इस वर्ग के रुझान में अब बेहद अहम और काबिल-ए-गौर तब्दीली दिखाई दे रही है। मसलन, एक तरफ जहां ब्राह्मण बिरादरी का बड़ा हिस्सा कांग्रेस से विमुख होकर भाजपा के पक्ष में लामबंद हुआ है वहीं, बसपा ने बहुप्रचारित ‘सोशल इंजीनियरिंग‘ की नीति के सहारे इस तबके को अपनी ओर खींचा है। सपा व कांग्रेस की निगाहें भी ब्राह्मण समाज पर टिकी हैं। यह बात दीगर है कि, समाज को अपनी कोई एक दूरगामी दशा और दिशा तय करने के चलते लगातार असमंजस भरी स्थिति से जूझना पड़ा है। वह भी तब, जब पिछली कई चुनावी परीक्षाओं से गुजरने के बाद आज पहले की तुलना में ब्राह्मण समाज बहुत हद तक एकजुट है। 
    आंकड़े बताते हैं कि, ब्राह्मण समाज ने अपनी बिरादरी के चेहरों पर भरपूर भरोसा जताने में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी। हालांकि, ऐसा भी हो चुका है, जब विभिन्न दलों द्वारा ब्राह्मण समाज पर दांव खेलने पर बिरादरी का वोट बंट गया। नतीजतन ब्राह्मण प्रत्याशियों को शिकस्त का मुंह देखना पड़ा। इसी उतार-चढ़ाव के चलते चुनाव-दर-चुनाव समाज के विधायकों की संख्या घटती-बढ़ती रही है। मसलन, 1993 में भाजपा के 17 ब्राह्मण विधायक चुने गए तो 1996 में 14, 2002 में आठ, 2007 में तीन और 2012 में केवल छह ब्राह्मण चेहरे विधानसभा पहुंचे। 1993 में बसपा काएक भी ब्राह्मण विधायक नहीं था लेकिन, 1996 में उसके दो, 2002 में चार, 2007 में 41 और 2012 में 10 ब्राह्मण विधायक चुने गए। सपा के 1993 में दो, 1996 में तीन, 2002 में दस, 2007 में 11 और 2012 में 21 ब्राह्मण विधायक थे। जबकि, एक दौर में ब्राह्मणों का सर्वाधिक समर्थन हासिल करने वाली कांग्रेस के 1993 में पांच, 1996 में चार, 2002 में केवल एक, 2007 में दो और 2012 में भी बमुश्किल तीन ब्राह्मण चेहरे विधानसभा पहुंचे। स्पष्ट है कि, बीते करीब ढाई दशक में ब्राह्मण समाज की सोच और राजनीतिक सहभागिता में कितना बदलाव आया है। इसका सटीक उदाहरण सूबे में कांग्रेस की स्थिति में जबरदस्त गिरावट और ठीक इसके समानांतर भाजपा, सपा तथा बसपा के राजनीतिक ग्राफ में बढ़ोत्तरी की शक्ल में बखूबी देखा जा सकता है। 
    बात 2012 की करें तो इसमें सपा ने बेहद दमदार और ‘फुलप्रूफ‘ रणनीति के तहत ठीक कांग्रेस की तर्ज पर सूबे के तमाम हिस्सों में ब्राह्मण नेताओं को आगे करके विधानसभा चुनाव लड़ा। 20017-08 में कांग्रेस ने रीता बहुगुणा जोशी को पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ब्राह्मण कार्ड खेला था, जिसकी बदौलत 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के 22 सांसद चुने गए। नतीजतन, सपा ने माताप्रसाद पांडेय सरीखे नेताओं को विधानसभा अध्यक्ष सरीखे अहम पदों पर आसीन करने के साथ इस वर्ग की सियासी नुमाइंदगी तेजी से बढ़ाई, जिसका 2012 चुनाव में उसे भरपूर लाभ मिला और इसमें उसके 21 ब्राह्मण विधायक चुने गए। यही नहीं, 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भी ब्राह्मण समाज को लामबंद करते हुए न केवल जनाधार बढ़ाया बल्कि, राजनीतिक जानकारों की मानें तो इसी रणनीति के सहारे पार्टी यूपी में रिकाॅर्ड 73 सीट जीतने में कामयाब हुई। 
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    ‘सम्मान‘ और ‘पहचान‘ की जंग
    सहारनपुर। अन्य वर्गों की तुलना में ब्राह्मण समाज को अपेक्षा अधिक शिक्षित और बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व माना जाता है लिहाजा, हर चुनाव के दौरान तमाम पार्टियां इस वर्ग को अपनी ओर खींचने में जुट जाते है। इस बार भी नजारा अलग नहीं है। यह वोट बैंक यूपी के लगभग हर जिले में है। हालांकि, पूर्वांचल के कई जिले ब्राह्मण समाज का गढ़ माने जाते हैं तो मध्य यूपी और बुंदेलखंड में भी इनकी अच्छी संख्या है। बीते कुछ चुनाव से वेस्ट यूपी में भी इस बिरादरी ने जीत-हार की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई है। इस बार यह समाज पहले की तुलना में खासा एकजुट भी नजर आ रहा है। यही कारण है कि, लखनऊ से लेकर सहारनपुर तक हर जगह ब्राह्मण समाज में मजबूत पैठ रखने वाले चेहरों को समय आने पर भरपूर ‘सम्मान‘ के साथ उचित सियासी ‘पहचान‘ देने का वादा करके अपने पक्ष में किए जाने की होड़ मची है। 
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    ...किस तरफ झुकेगा पलड़ा ?
    सहारनपुर। एक बार फिर यह तबका विधानसभा चुनाव में न केवल प्रत्याशियों बल्कि, प्रमुख दलों की किस्मत को भी निर्णायक मोड़ दे सकता है। नतीजतन, सभी दलों ने ब्राह्मण नेताओं की पूरी फौज ही चुनाव मैदान में उतार दी है। भाजपा जहां कलराज मिश्र, महेश शर्मा, शिवप्रताप शुक्ल, रीता बहुगुणा जोशी, महेंद्रनाथ पांडेय व बृजेश पाठक सरीखे नेताओं के दम पर ब्राह्मणों को खींचना चाहती है तो सपा की उम्मीदें मनोज पांडेय, प्रो. शिवाकांत ओझा और अभिषेक मिश्र जैसे ब्राह्मण चेहरों पर टिकी हंै। कांग्रेस ने शीला दीक्षित को सीएम कैंडिडेट बनाकर ब्राह्मण को लुभाने की चाल चली है। जबकि, बसपा ने रिकाॅर्ड 66 ब्राह्मणों को प्रत्याशी बनाया है, जिनमें सहारनपुर नगर सीट के उम्मीदवार मुकेश दीक्षित भी शामिल हैं। हालांकि, दीक्षित के लिए फिलवक्त सबसे बड़ी चुनौती अपनी ही बिरादरी का समर्थन पाना है, जिसके बिना उनके लिए जीतना शायद ही संभव हो।


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