* सत्ता की खातिर राहुल-अखिलेश के बीच ‘बेमेल‘ दोस्ती का ‘खेल‘
* दोनों सियासी खेमों में सीटों पर ‘रार‘ बरकरार, कैसे लाएंगे चुनावी धार
* अब तक एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलने वाले बन गए ‘परम मित्र‘
* सैद्धांतिक राजनीति की डगर से जुदा राह पर चल रहे दोनों युवा नेता
* एक बार फिर जूनियर पार्टनर बनने को मजबूर हुई विकल्पहीन कांग्रेस
* सीएम अखिलेश के नेतृत्व में सपा को भी गुजरना होगा अग्निपरीक्षा से
पवन शर्मा
सहारनपुर। यूपी के सियासी दंगल में एक से बढ़कर एक दांव-पेच चले जा रहे हैं। यहां ताल ठोकने वाले बखूबी जानते हैं कि, राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु। लिहाजा, कल तक एक-दूसरे के खिलाफ जमकर जहर उगलने वालों ने सत्ता की खातिर ‘बेमेल‘ ही सही, आखिरकार जिगरी ‘दोस्ती‘ के बंधन में बंधने से कतई परहेज नहीं किया। इसी के साथ, जहां दिशाहीनता के संकट से जूझ रही कांग्रेस समझौते के बहाने सपा की ‘जूनियर पार्टनर‘ बन गई तो वहीं सपा अपने नए ‘सुल्तान‘ अखिलेश यादव की अगुवाई में नई ‘परीक्षा‘ से गुजरने का हौसला दिखा रही है। यह बात दीगर है कि, इस बड़े ‘प्रयोग‘ के बावजूद दोनों ही सियासी खेमों में ऊपर से नीचे तक, न तो एक-दूसरे के प्रति ‘समर्पण‘ की सोच है और न सच्चे ‘दिलीजज्बात‘। लिहाजा, तमाम ‘खोखली‘ दरारों से बाहर झांकता ये ‘साथ‘ बार-बार झूठे वादों से छली जाती रही यूपी की जनता को कितना पसंद आएगा, इस पर संशय के बादल यथावत बने हुए हैं।
यूपी चुनाव में पहली बार सपा और कांग्रेस एक डगर पर सियासी सफर तय करने को तैयार हैं। करीब तीन दशक से सूबे में बेहद प्रतिकूल हालात का सामना कर रही कांग्रेस के लिए इस समझौते की कमान संभालने खुद पार्टी के ‘युवराज‘ यानी राहुल गांधी आगे आए तो, सपा के लिए पार्टी के नए ‘सुप्रीमो‘ सीएम अखिलेश यादव ने इस नए ‘प्रयोग‘ में विश्वास दर्शाया। लेकिन, दर-हकीकत यह सब उतना ‘सहज‘ भी नहीं था, जितना फिलवक्त दोनों ही युवा नेता अपनी-अपनी ‘बाॅडी लेंग्वेज‘ से दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं। आखिरकार, करीब 131 वर्ष पुरानी कांग्रेस सरीखी पार्टी क्योंकर एक सियासी समझौते के बहाने बमुश्किल ढाई दशक पहले अस्तित्व में आई पार्टी यानी, सपा की ‘जूनियर पार्टनर‘ बनने पर राजी हो गई, यह जानना-समझना न केवल जरूरी है बल्कि, इसी प्रश्न की गहराई में कई दिलचस्प तथ्य भी उभर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों पार्टियां सियासी मजबूरी के ही चलते एक-दूसरे के साथ आई हैं लेकिन, यूपी की चुनावी जंग में यह फार्मूला कितना कामयाब होगा, अभी इस पर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि, यह सच है कि, यदि वाकई अपने-अपने दावों पर अमल करते हुए सपा और कांग्रेस जमीनी स्तर पर बेहतर समन्वय के साथ काम करती नजर आएंगी तो कहीं न कहीं यह गठबंधन ‘क्लिक‘ भी कर सकता है। लेकिन, फिलहाल ऐसे आसार कहीं नजर नहीं आ रहे।
आलम यह है कि, दोनों ही सियासी खेमों में सीटों के बंटवारे को लेकर शुरू हुई ‘रार‘ जस की तस बरकरार है, जिसके नतीजे में सपा और कांग्रेस के नेताओं के बीच जमकर ‘तकरार‘ हो रही है। वेस्ट यूपी से लेकर सूबे के तमाम हिस्सों में कमोबेश यही नजारा है। सहारनपुर सरीखे कई जिलों में तो एक ही सीट पर दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर ताल तक ठोक रहे हैं। इससे दोनों दलों के बीच हुए समझौते की पोल खुद-ब-खुद खुलती नजर आ रही है। इसी तरह, चुनाव के फौरन बाद उभरने वाले सवालों को लेकर भी दोनों दलों के शीर्ष नेताओं के बीच किसी किस्म का बेहतर तालमेल कहीं नहीं झलक रहा। मसलन, रविवार को ही संयुक्त वार्ता में जब सीएम अखिलेश से पूछा गया कि क्या वे 2019 के आम चुनाव में पीएम पद के लिए राहुल गांधी के चेहरे का समर्थन करेंगे तो अखिलेश एकाएक खासे ‘असहज‘ नजर आने लगे। इसी तरह, अखिलेश और राहुल, दोनों ही भाजपा की ओर से इस समझौते पर उठाए गए सवालों के बारे में पूछने पर भी बेहतर जवाब नहीं दे सके तो इसी तरह, एक-दूसरे की सरकारों को ‘रेटिंग‘ देने के मामलों में भी इन दोनों युवा नेताओं को परेशानी से जूझना पड़ा।
जाहिर है कि, यह स्थिति एक ऐसे मुकाम पर दोनों दलों की साझा रणनीति पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकती है, जब यूपी में न केवल सपा की ‘साख‘ बल्कि, कांग्रेस का तो एक किस्म से ‘अस्तित्व‘ ही दांव पर लगा हुआ है। हालांकि, फिलवक्त दोनों ही खेमों की ओर से भरसक कोशिश की जा रही है कि वे आम मतदाताओं के बीच खुद को पूरी तरह ‘एकजुट‘ दर्शाकर किसी भी तरह मुस्लिम मतों के बड़े पैमाने पर होते रहे ‘धु्रवीकरण‘ को इस बार रोक सकें। पिछले ज्यादातर चुनाव में मुस्लिम मतों का विभाजन होने के चलते कांग्रेस और सपा, दोनों को तगड़ा नुकसान झेलना पड़ा है। चूंकि, पूरे प्रदेश की कुल आबादी के अनुपात में मुस्लिम मतदाताओं की अहमियत करीब 19-20 प्रतिशत हिस्सेदारी की है, लिहाजा इस बार बसपा भी अपने परंपरागत दलित वोट बैंक के साथ मुस्लिम गठजोड़ करने के लिए बेकरार है ताकि, इसके सहारे सत्ता की दिशा में उसका सफर और आसान हो सके। लेकिन, 2012 में बहुत हद तक मुस्लिम वोट बैंक को अपने पाले में ही बनाए रखने में कामयाब हुई सपा भरसक कोशिश कर रही है कि, मौजूदा चुनाव में कांग्रेस का ‘हाथ‘ थामकर वह अधिकतम राजनीतिक लाभ हासिल कर ले। इतना ही नहीं, इसी बहाने वह यूपी की चुनावी तस्वीर को ‘चतुष्कोणीय‘ घमासान से तिकाने मुकाबले में तब्दील करने में भी कामयाब रही है। इसके बावजूद, अर्से से एक-दूसरे की ‘मुखालफत‘ में पूरी जान झोंकने वाले इन दो सियासी चेहरों के चुनावी समझौते की यह ‘खिचड़ी‘ आम मतदाताओं को कितनी पसंद आती है, यह फैसला आने वाले दौर में ही हो सकेगा।
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