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    Saturday, 7 January 2017

    ‘फूलों के रंग‘ में मुस्काता है शब्दों का इंद्रधनुष -Bal Sahitya

    पवन शर्मा 
    -- बाल साहित्यकार डाॅ. मंजरी शुक्ला के नवीनतम संग्रह पर एक नज़र
    -- बाल कथाकार मनोहर चमोली ‘मनु‘ ने की है संग्रह की सहज समीक्षा  


    हिंदी साहित्य में बाल रचनाकारों की अपनी ही अलग दुनिया है। यहां बच्चों के अपने सहज-सरल मनोविज्ञान पर केंद्रित तमाम दिलचस्प बातें हैं। उन्हें लुभाते, बरबस ही अपनी ओर खींचते चटख रंग हैं। शब्दों का इंद्रधनुष है और कल्पनालोक की सैर कराते एक से बढ़कर एक अनूठे किस्से, कविताएं हैं। बाल मन के इसी रुपहले संसार में ख्यातिलब्ध साहित्यकार डाॅ. मंजरी शुक्ला ने अपने नवीनतम रचना संग्रह ‘फूलों के रंग‘ से ऐसी खुशबू बिखेरी है, जिसका जादू न केवल बच्चों बल्कि, बड़ों पर भी बखूबी चल रहा है। आइए, खुद एक ‘सच्चे‘ और अच्छे बाल कथाकार मनोहर चमोली ‘मनु‘ की बेबाक कलम से की गई इस संग्रह की समीक्षा का आनंद लिया जाए ताकि, जान सकें कि, अपनी इन 13 चुनिंदा कहानियों की बदौलत डाॅ. मंजरी ने बच्चों की दुनिया में कितनी खूबसूरती के साथ दस्तक दी है ? 
    बकौल ‘मनु‘, बाल कहानियों का संग्रह ‘फूलों के रंग’ वस्तुतः अंग्रेजी और हिंदी में समान सिद्धहस्त डाॅ. मंजरी शुक्ला का हिंदी बाल कहानियों का दूसरा संग्रह है। उनका पहला बाल कहानियों का संग्रह ‘जादुई गुब्बारे’ भी खूब सराहा गया था। अब भोपाल के संदर्भ प्रकाशन से यह अजिल्द 48 पृष्ठीय संग्रह आया है। आवरण रंगीन है। फोंट पठनीय और कागज बेहतरीन है। संग्रह में डाॅ. मंजरी ने तीन अनुच्छेदों का संक्षिप्त आत्मकथ्य दिया है। वह लिखती हैं-‘‘जब भी मैं नन्हे-मुन्ने बच्चों को देखती हूं तो अपने आप ही उनसे ऐसे जुड़ जाती हूं, जैसे मेरा उनसे कोई बहुत पुराना रिश्ता हो।‘‘ वे लिखती हैं-‘‘मेरी उपलब्धि बस यही है कि बच्चे जब मेरी कहानी पढ़ें तो हर बच्चे को लगे कि वह दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण बच्चा है, जिसके लिए ही कहानी लिखी गई है।‘‘ मनु बताते हैं कि, कहानियां पढ़ते समय उन्हें ध्यान आया कि ये कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। अधिकतर पठनीय हैं। इनमें लोककथा शिल्प, जादुई तत्व, राजा-रानी का परिवेश, पशु-पक्षियों में मानवीयकरण और यथार्थपरक भाव भी शामिल है। अनोखा दशहरा, गलती, गोपू और जादूगर, जंगल की होली, जादुई मोती, दिवाली की शाॅपिंग, नटखट चकमक, फूलों के रंग, मटकू, हंसते बुलबुले, मन्नत की दीवाली, पूसी और नींबू का अचार, ग्लोइंग बटरफ्लाई कहानियों में बालमन शामिल है। राजा रघु और इंद्र से संबद्ध सोने के पत्ते की दंत कथा-सा पुट अनोखा दशहरा में मिलता है। यह कहानी इसलिए भी रोचक बन पड़ी है कि इसका शिल्प कहानी कहने जैसा है। मनु कहते हैं कि, ‘‘उनका स्पष्ट मानना है कि कहानी में कुछ हो न हो, पर कहना जरूरी होना चाहिए। पढ़ते समय लगे कि कहानी ऐसे कही जाती है। यह कहानी इस फाॅरमेट पर खरी उतरती है।‘‘
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    13 रोचक कहानियां, 13 चटख रंग
    ‘गलती‘ कहानी पिता-बेटे और नौकर पर केन्द्रित है। इसमें बच्चे, नौकर से हुई बातचीत का फोन पर वीडियो बना लेते हैं और सच्चाई पता चल जाती है। ‘गोपू और जादूगर’ एक परम्परागत फाॅरमेट पर बुनी कहानी है। गोपू की नींद खुलती है और तब उसे पता चलता है कि वह तो सपना देख रहा था। बालमन हाथी को उसके महावत द्वारा मारे जाने से आहत होता है और वह उसे उसके चंगुल से छुड़ाने की तरकीब भी सोच लेता है। पशु पक्षियों के बहाने ‘जंगल की होली’ का चित्रण मजेदार बन पड़ा है। मिन्नी गाय ने जानबूझकर होली के अवसर पर पहनने वाले कपड़े छोटे-बड़े सी दिए थे। ‘जादुई मोती‘ हम्पी देश के राजा सुधान्शुसेन की पुत्री रूपमती और बूढ़े जादूगर पर आधारित है। इसमें एक मछली जिसे रूपमती पकड़ लेती है और फिर छोड़ देती है। यह कहानी कल्पनालोक में घुमाती है। ‘दीवाली की शाॅपिंग’ आॅनलाइन शाॅपिंग के नतीजों पर आधारित है।‘नटखट चकमक‘ चकमक चूहे को केंद्र में रखकर बुनी गई कहानी है। यह कहानी लीक से हटकर है। बुनावट दमदार है। ऐसा कुछ घटता है कि चकमक चूहा गुब्बारे वाले की मदद भी करता है और चोरी का इरादा भी छोड़ देता है। ’फूलों के रंग’ कहानी फूलों, तितली, तोता, चिड़िया के बहाने आगे बढ़ती है। फूलों को अपने रंग से संतुष्ट होना चाहिए। यानी यह कहानी बताती है कि हमे प्रकृति ने जैसा बनाया है, उस पर नाज होना चाहिए। ‘मटकू’ कहानी अकल्पनीय को साकार करती नजर आती है। मटकू पेड़ है। एक अंश आप भी पढ़िए-‘पर मटकू इतना मजेदार नटखट था कि जब भी उसका मन करता, वह मटक-मटक के सभी पेड़ों के चारों ओर घूमता ओर उन्हें खूब हंसाता।‘ ‘हंसते बुलबुले‘ कहानी निक्की पर केंद्रित है। निक्की को साबुन के बुलबुले बनाने का शौक है। फिर ऐसा कुछ घटता है कि उसकी यह आदत हमेशा के लिए छूट जाती है। एक सधी कहानी। रोचक और बालमन की दुनिया की यथार्थपरक कहानी। बच्चे भी संवेदनशील होते हैं और उन्हें अपनी ही खुशियां प्यारी नहीं होतीं। वे अपने हमउम्र अंजान बच्चों के लिए भी बहुत कुछ कर गुजरने का साहस रखते है। इरादा रखते हैं। ऐसी ही कहानी है ‘मन्नत की दीवाली‘। ‘पूसी और नींबू का अचार’ कहानी में बिल्ली का दूध की जगह अचार से लगाव होना रोचक है। यही कारण घर में आए चोर को पकड़वा देता है। मजेदार कहानी कहीं न कहीं पालतू जानवरों के अप्रत्याशित कामों से मानवीय संवदेनाएं जगाने में सफल है। ‘ग्लोइंग बटरफ्लाई’ इशारा करती है कि यदि हम प्रकृतिप्रदत्त स्वभाव-गुण के विपरीत बनना चाहेंगे तो मुश्किल होगी।
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    ‘खास‘ है डाॅ. मंजरी की लेखन शैली 
    खुद ‘मनु‘ के शब्दों में-मंजरी शुक्ला जी विविधता से भरी कहानियां लिखती रही हैं। मुझे एक खास शैली उनकी कहानियों में नजर आती है। एक पात्र सजीव और दूसरा पात्र निर्जीव में जीवंत संवाद भरकर वह बेहद सावधानी से ऐसे उद्देश्य कहानी में पिरो लेती हैं कि बात बन भी जाती है और कहानी अनुमान और कल्पना का सहारा लेते हुए बच्चों को भा जाती हैं। एक और शैली उनकी कहानियों में बहुतायत से है। इस संसार में जो जीव जैसा है उससे विपरीत आचरण करता हुआ कहानियों में शामिल होता है। जैसे उनकी कहानियों में पेड़ चलने लगते हैं। बिल्ली अचार खाने लगती है। मछली जादुई मोती देती है। वह जादुई मोती संकट में बेहद काम आने लगता है। जंगली जानवरों का होली मनाना और शहर से आई हुई मिठाई खाना। यह अजीबों-गरीब स्थितियां पैदा कर कथाकार बच्चों में रहस्य, रोमांच और जिज्ञासा बनाए रखने में सफल होती हैं। कल रात मैंने अनुभव और मृगांक को मन्नत की दीवाली और जादुई मोती सुनाई। मैं समझना चाहता था कि बच्चे कहानी सुनकर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं! मैं हैरान हूं कि रोजमर्रा की कहानियों से इतर ये कहानियां बच्चों को बेहद पसंद आईं। आज सुबह नींद से जागकर अनुभव के कुछ सवाल ये हैं। जो उसने मुझसे किए। अनुभव ने पूछा-‘‘क्या राजा होते हैं? क्या परी होती है? क्या चुड़ैल होती है? क्या भूत होते हैं? क्या नागिन औरत बन जाती है?’’ इन सवालों का जवाब मैंने वैज्ञानिक नजरिए के हिसाब से दे दिया। लेकिन अब मंजरी जी की कहानियों पर बात करते हुए यह कहना जरूरी समझता हूं कि हम मनुष्य काल्पनिकता की उड़ान हर रोज भरते हैं। योजना की पहली सीढ़ी अनुमान और कल्पना ही तो है। लेकिन यह अनुमान और कल्पना सृजनशीलता,सोच,विचार और रचनात्मकता की ओर जाए। ये हें दब्बू, डरपोक और अंधविश्वासी न बनाए। एक कहानीकार तो कहानी को उसके जरूरी तत्वों के हिसाब से और अपने शिल्प में ढालकर रच देता है। अब वह पाठकों पर है कि वह उसे कैसे ले। सिर्फ आनंद की अनुभूति करे या उससे अपनी समझ और अनुभव में वृद्धि करे। सही-गलत का आकलन करे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यदि पुस्तक का मूल्य एक सौ पचास जो रखा गया है को ध्यान में न रखा जाए तो पाठकों को यह पुस्तक बेहद पसंद आने वाली है। बच्चों को खासकर, 12 साल से कम उम्र तक के बच्चों को यह कहानियां अधिक पसंद आएंगी। मेरी शुभकामनाएं।
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    ...और आलोचना के बोल भी जरूरी
    पुस्तक में दो कहानियां हैं दिवाली की शाॅपिंग और मन्नत की दीवाली। दोनों का शीर्षक में दिवाली और दीवाली छपा है। इसे देखा जाना चाहिए था। वाक्य में टाइप करते हुए कहीं संज्ञा, सर्वनाम तो कहीं विशेषण छूटे हुए हैं। बातचीत के आम लहजे से कहीं-कहीं वाक्य अधूरे-से लगते हैं। प्रूफ रीडींग पर इसमें ध्यान देने की आवश्यकता है। शब्द युग्म बहुत जगह उपयोग में नहीं लाए गए हैं। पहली ही कहानी के पहले ही अनुच्छेद में रह रह कर लिखा गया है। तरह तरह का उपयोग हुआ है। हंसते हंसते है। जोरों शोरों से उपयोग हुआ है। पहली ही कहानी के आधार पर कहा जा सकता है कि कुशल कहानीकार को लंबे-लंबे वाक्यों से आदतन बचना चाहिए। ‘इस कारण कभी तो उसकी हरकतों पर लोग हंसते हंसते लोटपोट हो जाते तो कई बार उसे सबके साथ इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता पर वो अपनी पुरानी गलतियों से सीख न लेते हुए एक के बाद एक हरकतें करता ही रहता।‘ एक और वाक्य देखिए-राज्य में जाकर उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि उसका दोस्त दशहरे की शाम को उसे तोहफे में सोने के पत्ते भिजवा रहा है, जिसमें से एक पत्ता वो अपने राज्य के हर परिवार को देगा। एक ओर वाक्य देखिए-‘कहां तो बेचारी बिन्नी की दुकान के आगे कोई झांकता भी नहीं था क्योंकि उसे ठीक से कपड़े सिलना आता ही नहीं था पर किसके पास इतनी फुर्सत थी कि मिंकू के हाथों शहर से कपड़े मंगवाएं।‘ इसी तरह पढ़िए-‘जब मटकू अपनी मस्ती में मटकता तो उसकी हिलती हुई डालियों से तोता, मैना, बुलबुल, कोयल, गौरैया और बाकी सभी पक्षियों को गुदगुदी होती, तो वे भी हंसते हुए दोहरे हो जाते और सब अपना पेट पकड़-पकड़ कर खिलखिलाते।‘ टेक्सट का फाॅरमेट स्कूली किताब की जगह दो काॅलम में होता तो और बेहतर होता। एक तो फाॅन्ट का आकार 12 रखा गया है। बच्चों के हिसाब से इसे कम से कम 15 या 16 होना चाहिए था। फिर सीधे एक लाइन में बच्चे सहज नहीं रह पाते। यदि इसे दो काॅलम में रखते तो आनंद की सीमा बढ़ जाती। कहानी का शीर्षक आकार में छोटा है। इसे भी बड़ा रखा जा सकता था। हर कहानी खत्म हो जाने पर बहुत सा स्थान रिक्त है। उसका उपयोग चित्र से पूरा किया जा सकता था। हर कहानी के प्रारम्भ में शीर्षक से पहले चित्र दिया गया है। वह भी कहीं न कहीं ले-आउट के बेहतर उपयोग से सामंजस्य में बैठ सकता था। चित्र भी संभवतः कप्यूटराइज्ड हैं। चित्रकार का नाम तक नहीं है। आवरण पृष्ठ किसने तैयार किया है ? यह भी कहीं अंकित नहीं है। कई जगह संवादों में उद्धरण चिन्हों का उपयोग ही नहीं किया गया है। मेरा स्पष्ट मानना है कि कहानी में ही वो ताकत होती है कि रचनाकार बड़ी ही सहजता और सरलता से पाठक को भाषाई तमीज और तहजीब साझा कर सकता है वो भी बिना सिखाए जाने के उद्देश्य से। इसके लिए जरूरी है कि कहानी में विराम चिह्नों, विस्मयादिबोधक चिह्नों, उद्धरण चिह्न, अर्द्ध विराम आदि का उपयोग हो। बलाघात, मुहावरे, लोकोक्तियां, विशेषण, योजक चिह्न आदि का सायास ही न सही, अनायास प्रयोग हो। कम से कम अंतिम तौर पर यह सब प्रकाशक का काम होना चाहिए। एक रचनाकार तो अपनी पाण्डुलिपि प्रकाशक को दे देता है। एक-दो नहीं, अच्छे प्रकाशक चार-चार पू्रफ रचनाकार को उपलब्ध कराते हैं ताकि कोई बड़ी गलती न रह जाए। आवरण पेज अंतिम मान लेने से पहले रचनाकार को उपलब्ध कराया जाना आज भी प्रकाशक जरूरी नहीं समझते। यह तब, जब किताबों का असल पाठक बच्चा होगा। 

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