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    Wednesday 18 January 2017

    न वजूद-न हैसियत, कैसे करेंगे कयादत ?‘ - Saharanpur News

       न वजूद-न हैसियत, 
    कैसे करेंगे कयादत ?

    -- खुद को सबसे बड़ा मुस्लिमपरस्त साबित करना चाहते हैं औवेसी
    -- केवल तीखे बयानों और नारों के सहारे कैसे जीतेंगे यूपी की जंग
    -- उम्मीदवारों में कोई दम नहीं, कैडर के लिहाज से भी सब सिफर 

    पवन शर्मा 
    सहारनपुर। यूपी के चुनावी ‘दंगल‘ में, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलमीन के अध्यक्ष असदउद्दीन औवेसी भी कूद चुके हैं। खुद को, मुस्लिमों का सबसे बड़ा ‘अलमदार‘ साबित करने की गरज से वे तीखी तकरीरें देकर माहौल बनाने की पुरजोर कोशिश भी कर रहे हैं लेकिन, लाख टके का सवाल यह है कि, क्या केवल तल्ख बयानबाजी, तीखे नारों और जज्बाती भाषणों के सहारे वे यूपी की सियासत को नया मोड़ दे सकते हैं ? वह भी तब, जब सूबे के ज्यादातर हिस्सों में उनकी पार्टी न खुद ‘झंडा‘ लहराने की हैसियत में है और न उनके पास ऐसा ‘कैडर‘ है, जो मजबूती से पार्टी का ‘डंडा‘ थामकर एआईएमआईएम को जीत की दहलीज तक पहुंचा दे। वहीं, एक दौर में सीधे मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखकर विवादित बयान देने वाले कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष इमरान मसूद के ‘घर‘ यानी सहारनपुर की सरजमीं पर अब औवेसी की आमद के साथ ही यह दिलचस्प सवाल भी सिर उठा रहा है कि, वे यहां से ‘नायक‘ बनकर लौटेंगे या ‘खलनायक‘ ? 
    यूपी चुनाव की जंग में हर पार्टी पूरी ताकत के साथ ताल ठोकने का दावा तो जरूर कर रही है लेकिन, दर-हकीकत तस्वीर इससे पूरी तरह जुदा है। आलम यह है कि, बड़े सियासी दलों को भी अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए जीतोड़ प्रयास करने पड़ रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे हालात में औवेसी भी वही सब कर रहे हैं, जिसमें उन्हें माहिर माना जाता है। फिर वह चाहे कैराना से चुनावी मुहिम का आगाज हो या फिर पूरे वेस्ट यूपी में तेजी से बढ़ती उनकी सक्रियता, जहां बीते कुछ बरस में कई बार सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पेश आई है। जाहिर है कि, तीखी तकरीरों ओर तल्ख बयानबाजी के सहारे अलग लोकप्रियता हासिल करने वाले औवेसी को अपनी फसल बोने के लिए इससे बेहतर जमीन और कहां मिलती ? यही कारण है कि, वे लगातार अपनी सभाओं में न केवल केंद्र की भाजपा सरकार बल्कि, सूबे में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी पर भी लगातार हमला बोल रहे हैं। यही नहीं, अदालती पाबंदी के बावजूद धर्म के नाम पर वोट मांगने से भी उन्हें कोई परहेज नहीं, जिसका सुबूत उन्होंने मुरादाबाद की अपनी सभा में बखूबी दिया। यहां औवेसी ने इशारों-इशारों में ही संदेश देने की पुरजोर कोशिश की कि, पिछली सरकारों ने मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं किया। लिहाजा, इस बार मुस्लिम उनकी पार्टी को चुनें। काबिल-ए-गौर पहलू यह है कि, इसी सिलसिले के बीच औवेसी यह दावा करने से भी नहीं चूके कि, जहां भी मुस्लिम बहुल इलाके हैं, वहां उर्दू मीडियम स्कूल खोले जाएंगे। इसे लेकर वे एक बार फिर अन्य दलों के सीधे निशाने पर आ गए थे, जिनकी ओर से चुनाव आयोग से औवेसी के बयान का संज्ञान लेने की मांग तक की गई थी। 
    यानी, ऐसे हालात में यह तो शीशे की मानिंद साफ है कि, चुनावी माहौल में बेहद सुनियोजित ढंग से पूरे वेस्ट यूपी में सक्रियता बढ़ा रहे औवेसी सहारनपुर में भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की खातिर कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे लेकिन, इसी के साथ यह दिलचस्प सवाल भी खड़ा हो गया है कि, क्या अपने सियासी प्रतिद्वंद्वी और खुद भी तल्खी भरे विवादित बयानों के लिए पहचाने जाने वाले कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष इमरान मसूद के ‘घर‘ में उनकी आमद वाकई कोई बड़ा गुल खिलाएगी ? वह भी तब, जब न केवल इमरान, बल्कि भाजपा को छोड़कर तमाम छोटे-बड़े दल मुस्लिम वोट बैंक पर कब्जा जमाने की ‘गलाकाट‘ होड़ में जी-जान से जुटे हैं। औवेसी और उनके सियासी सिपहसालारों को बखूबी समझना होगा कि जिन चेहरों को उन्होंने यूपी चुनाव के अखाड़े में उतारा है, वे ठीक ढंग से अपनी मौजूदगी जताने तक की हैसियत नहीं रखते। सहारनपुर में भी ओवैसी की पार्टी ने जिन्हें उम्मीदवार बनाया है, उनका आम जनता से ‘संवाद‘ तो दूर, खुद अपने ही इलाके में कोई सियासी वजूद नहीं है। यही हाल पार्टी के ‘कैडर‘ का है, जो न संख्याबल के लिहाज से बेहतर स्थिति में है और न उसका कोई मजबूत ‘नेटवर्क‘ है। जाहिर है कि, ऐसे हालात में भी यदि औवेसी दावा कर रहे हंै कि, वे यूपी की सियासत को नया मोड़ देने के लिए चुनावी ‘दंगल‘ में उतरे हैं तो, इसमें खास दम नजर नहीं आता।    
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    ‘दिल्ली‘ छोड़िए हुजूर...‘लखनऊ‘ भी दूर !
    सहारनपुर। एक तरफ ओवैसी हैं तो दूसरी तरफ वे तमाम चेहरे, जिनके बीच अब ‘मुस्लिम कयादत‘ की जंग पल-दर-पल तेज होती जा रही हैै। ओवैसी अपनी पार्टी को मुस्लिमों के लिए इकलौता ‘विकल्प‘ करार दे रहे हैं तो सपा, बसपा, कांग्रेस व पीस पार्टी के नेता तक खुद को सबसे बड़ा ‘मुस्लिमपरस्त‘ साबित करने में जुटे हैं। लेकिन, ओवैसी कुछ ज्यादा मुखर हैं। वे सूबे में हुए दंगों के मुद्दे को ‘ढाल‘ बनाकर सीएम अखिलेश यादव को मुसलमानों के लिए ‘खलनायक‘ और खुद को बतौर ‘नायक‘ पेश करना चाहते हैं। बसपा प्रमुख मायावती भी उनके निशाने पर हैं, जिनके बारे में वे याद दिलाते हैं कि, ‘बहनजी‘ मोदी के चुनाव प्रचार के लिए गुजरात गई थीं। कांग्रेस को मुसलमानों का सबसे बड़ा ‘दुश्मन‘ ठहराते हुए वे अयोध्या प्रकरण से जुड़े संवेदनशील पहलुओं में उसकी भूमिका का जिक्र करते हैं। भाजपा के लिए तो वे हमेशा पूरी ‘स्क्रिप्ट‘ तैयार रखते हैं। यानी, ओवैसी खुद को मुसलमानों का इकलौता और सबसे बड़ा ‘हमदर्द‘ या यूं कहा जाए कि, ‘मसीहा‘ तक साबित करने में कभी कमी नहीं छोड़ते। यह बात दीगर है कि, ऐसे तमाम प्रयासों के बावजूद यूपी के राजनीतिक परिदृश्य में ओवैसी की अपनी ‘हैसियत‘ एक ऐसे ‘चरमपंथी‘ नेता से अधिक नहीं लगती, जिसके पास तीखी तकरीरों का तो जखीरा है लेकिन, जनाधार के नाम पर सब कुछ ‘सिफर‘। यानी, कुल मिलाकर ऐसे हालात में ओवैसी के लिए फिलहाल तो ‘दिल्ली‘ ही नहीं, बल्कि, ‘लखनऊ‘ की मंजिल का सफर भी कतई आसान नहीं !

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