-- टिकट वितरण में न सिद्धांतों को तरजीह, न पृष्ठभूमि का ख्याल-- चलती गाड़ी में सवार हुए चेहरों को झेलना पड़ेगा तगड़ा विरोध -- जमकर चला अवसरवाद, चहेतों को धड़ल्ले से बांट दिए टिकट -- सियासी बिसात पर करारी मात खा सकते हैं भाजपा के ‘मोहरे‘
पवन शर्मा
सहारनपुर। बेशक ! कमल ‘कीचड़‘ में खिलता है लेकिन, खुद दलबदलुओं की गहरी ‘दलदल‘ में समा चुकी भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव के ‘महासंग्राम‘ में ऐसा कर पाना फिलहाल कतई संभव नजर नहीं आ रहा। पार्टी की पहली चुनावी लिस्ट में साफ झलक रहा है कि, आलाकमान ने टिकट वितरण में न सिद्धांतों को तरजीह दी और न प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि का ख्याल रखा। अलबत्ता, ‘अवसरवाद‘ की बहती ‘धारा‘ में डुबकियां लगाने से लेकर चहेतों को ‘रेवड़ी‘ की तरह टिकट बांटने में कतई गुरेज नहीं किया गया। नतीजतन, सांगठनिक गलियारों से शुरू होकर अब सतह पर साफ उभरते विरोध के बीच भाजपा के रणनीतिकारों को सवाल सता रहा है कि, पिछली तमाम ‘पराजय‘ गाथाओं की तर्ज पर कहीं इस बार भी उनके ‘कमजोर‘ मोहरे सियासी बिसात पर करारी मात न खा बैठें ?
यूपी और उत्तराखंड में शुरुआती चरणों में होने जा रहे चुनाव के लिए जारी भाजपा की सूची में ‘अवसरवादिता‘ से लेकर ‘भाई-भतीजावाद‘ तक का भरपूर ख्याल रखा गया है। मसलन, वेस्ट यूपी के महत्वपूर्ण जिलों में शुमार सहारनपुर में देखें तो यहां भी पार्टी ने एक-दो नहीं, बल्कि चार सीटों पर दलबदलुओं को टिकट थमा दिया है। इनमें नकुड़ से धर्म सिंह सैनी, बेहट से महावीर राणा, सहारनपुर देहात से मनोज चैधरी और गंगोह से प्रदीप चैधरी शामिल हैं। प्रदीप चैधरी कांग्रेस से और अन्य तीनों चेहरे बसपा को अलविदा कहकर भाजपा में शामिल हुए थे। यानी, संदेश पूरी तरह स्पष्ट है कि, खुद को ‘पार्टी विद् द डिफरेंस‘ कहने वाली भाजपा चुनाव जीतने की खातिर हर दांव चलने को बेकरार है। फिर, चाहे अपने तमाम बहुप्रचारित सिद्धांत ताक पर रखने हों या फिर पार्टी में अर्से से निष्ठा, समर्पण, अनुभव और सेवाभाव की मिसाल पेश करने वालों की ही अनदेखी क्यों न करनी पड़े ? दलबदलुओं की दलदल में बुरी तरह फंसी भाजपा ने ऐसे किसी भी कदम से कोई गुरेज नहीं किया। नतीजा सामने है। यानी, पार्टी की पूरी सूची में मौकापरस्तों की ‘पौ-बारह‘ है और समर्पित भाजपाइयों को बड़े करीने से हाशिए पर पहुंचा दिया गया है। जबकि, बाकी जो सीट बची हैं, उनमें भी पार्टी ने कमजोर या आपसी गुटबाजी से जूझ रहे चेहरों पर ही भरोसा जताकर खुद को बेहद अजीबोगरीब स्थिति में पहुंचा दिया है। वे चाहे, रामपुर मनिहारान में देवेंद्र निम और देवबंद के कुंवर ब्रजेश सिंह सरीखे चुनावी मैदान के बिलकुल नए ‘खिलाड़ी‘ हों या फिर, चरम तक पहुंची ‘विरोध‘ और ‘अंतर्विरोध‘ की चुनौती से जूझने को मजबूर शहर सीट के पार्टी प्रत्याशी राजीव गुंबर। मौजूदा हालात में, भाजपा के इन तमाम महारथियों की हैसियत बेहद कमजोर मोहरों से अधिक नजर नहीं आ रही, जिनसे किसी ‘चमत्कार‘ की उम्मीद फिलहाल न के बराबर है।
दिलचस्प पहलू यह है कि, चुनावी मौसम के मद्देनजर हवा का रुख भांपते हुए फिलवक्त भाजपा की ‘नाव‘ में अब तक इतने दलबदलू सवार हो चुके हैं, जिसे देखते हुए इस पार्टी को खुद अवसरवाद की बेहतरीन मिसाल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दरअसल, गौर से परखें तो सत्ता के मोह में डूबी में भाजपा के लिए अब कोई ‘अछूत‘ नहीं रह गया। न ‘दागी‘ चेहरे और न दंगे की ‘आग‘ भड़काने के आरोपी। तभी तो, वेस्ट यूपी से लेकर उत्तराखंड तक ऐसे चेहरों की अच्छी-खासी फेहरिस्त है, जो पार्टी के टिकट पर पूरी ताकत के साथ चुनावी ‘दंगल‘ में ताल ठोक रहे हैं। जबकि, वे तमाम बेहद गंभीर सवाल जस के तस अनुत्तरित ही बने हैं, जिनकी रोशनी में भाजपा की दशा से लेकर दिशा तक पर मंडराता भारी खतरा अब साफ-साफ देखा जा सकता है। मसलन, उम्मीदवारों के चयन में किन मापदंडों का पालन हुआ ? सक्रिय राजनीतिक अनुभव और सामाजिक पृष्ठभूमि जैसे अहम पहलुओं की खुलकर अनदेखी क्यों की गई ? अर्से से पार्टी के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखने वालों को पूर्ण पात्रता के बावजूद आखिर इस बार भी टिकट से क्यों वंचित रखा गया ? चयन प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता बरती जाने के दावे अंततः क्यों खोखले साबित हुए ? दलबदलुओं या बाहरी चेहरों को इस हद तक तरजीह क्यों देनी पड़ी ?
दरअसल, भाजपा रूपी ‘चलती गाड़ी‘ मंे सवार हुए इन दलबदलुओं की फेहरिस्त खुद-ब-खुद दिलचस्प हकीकत नुमायां कर रही है। इसमें साफ तौर पर एक तरफ तमाम ऐसे चेहरे देखे जा सकते हैं, जो सत्ता और कुर्सी के लिए कुछ भी दांव पर लगाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। फिर चाहे वह राजनीतिक दृष्टिकोण की पूंजी हो या बेहद सहेजकर रखे जाने वाले सिद्धांत। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसे चेहरे या यूं कहा जाए कि, ‘मुखौटे‘ राजनीति के ‘रंगमंच‘ पर अपना कोई मौलिक विचार या नीति लेकर नहीं आते बल्कि, इससे ठीक इतर वे हमेशा सत्ताजनित लाभ के लिए तिकड़म के फेर में रहते हैं। इन्हें तो हर हाल में ‘कुर्सी‘ चाहिए। जो दिला दे, ये उसी के साथ हो जाते हैं। न इनका कोई दीन होता है और न ईमान। बस, किसी भी तरह कुर्सी मिल जाए, यही हद दर्जे की अवसरवादिता इन ‘बाहरी‘ चेहरों को हमेशा एक बेहद झीने ‘आवरण‘ में कैद करके रखती है। दिलचस्प पहलू यह है कि, जनता भी अक्सर, ऐसे अवसरवादियों की ‘खोखली‘ हकीकत से बखूबी वाकिफ होने के बावजूद उन्हें जीत का हार पहना देती है। लेकिन, इस बार कम से कम सहारनपुर की सरजमीं से लेकर पूरे वेस्ट यूपी और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भाजपा के महारथियों के लिए यह मुश्किल ख्वाब सच कर पाना फिलहाल कतई मुमकिन नजर नहीं आ रहा।
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